उ. प्र. सहित पांच राज्यों में चुनाव परिणाम अर्थात नफरत की राजनीति को नकारने वाला जनादेश
माधव भांडारी, उपाध्यक्ष, महाराष्ट्र प्रदेश भाजपा
हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनावों में भाजपा ने चार राज्यों में अपनी सत्ता कायम रखी तो कांग्रेस ने पंजाब में सत्ता गंवा दी। वहां पर आम आदमी पार्टी को जनता ने जनमत दिया है। यह परिणाम अपेक्षा के अनुसार आया है। कारण पंजाब में कांग्रेस की जगह 'आप' आएगी ऐसा स्पष्ट दिखाई दे रहा था। यदि भाजपा अपने राज्यों को नही बचा पाए तब भी कम से कम तीन राज्य बचाने में सफल होगी, यह भी उतना ही स्पष्ट था। अर्थात अपने यहां 'निष्पक्ष पत्रकार व विश्लेषकों' को ऐसा 'नहीं दिख रहा था' वह बात अलग है ! उन्हें जो 'दिख रहा था' उसके अनुसार भाजपा का नामोनिशान मिटनेवाला था, लेकिन यह नहीं हुआ, ऐसा इन परिणामों से स्पष्ट हो गया है। इन परिणामों के कारण सामने आए मुद्दों पर ध्यान देते हैं।
इन चुनावों के परिणामों से जो पहला मुद्दा जो सामने आया है अर्थात भारतीय मतदाता अब जाती पाती व धर्म की राजनीति की अपेक्षा विकास व अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को प्रमुखता देने लगे हैं। उ. प्र. से लेकर गोवा तक पांचों ही राज्यों में यह मुद्दा रेखांकित हुआ है। इसलिए उत्तरप्रदेश में मुस्लिम यादव समीकरण जैसा होना चाहिए था वैसा नहीं हुआ। और इसके बल पर सत्ता में आने की अखिलेश यादव व समाजवादी पार्टी के मंसूबों पर पानी फिर गया। पंजाब में भी ' दलित मुख्यमंत्री' का खेल कांग्रेस के लिए उपयोगी साबित नही हुआ। वहां तो मुख्यमंत्री स्वयं पराजित हो गए। इन सभी राज्यों के मतदाताओं ने जाती की अपेक्षा अपना, अपने क्षेत्र के विकास के मुद्दे को महत्वपूर्ण मानकर इन विषयों के पूर्व अनुभव के आधार पर मतदान किए। जातिपाती, भाषा, पंथ, धर्म इन सभी से आगे जाकर 'एक समाज- एक देश' के रूप में विचार करनेवाला 'आधुनिक, सेक्युलर भारत' निर्माण करने की दृष्टि से यह बदलाव अत्यंत महत्व का है। संविधान पर विश्वास रखनेवाला प्रत्येक व्यक्ति इस बदलाव का स्वागत करेगा। इस चुनाव के परिणामों से सामने आया दूसरा मुद्दा है अर्थात चारों ही राज्यों में जनता ने नफरत की राजनीति को पूरी तरह से नाकार दिया है। उत्तरप्रदेश व अन्य चार राज्यों में प्रचार करते समय राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा ने भाजपा व मोदीजी, योगीजी के चरित्र हनन करने का निरंतर प्रयास किया। जिसके लिए अत्यंत ही हीन स्तर की भाषा का उपयोग, हीन विशेषणों की भरमार करने में उन्होंने कोई कसूर नही रखा था। लेकिन इससे अभी इतना ही हुआ कि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस द्वारा खड़े किए गए 399 उम्मीदवारों में से 387 लोगों की जमानत राशि जप्त हो गई, जैसे तैसे करके दो प्रतिशत मत उनके खाते में पड़े, अमेठी के बाद रायबरेली भी गंवा दिए और केवल दो लोग चुनकर आए। कांग्रेस को यह अनुभव अन्य चार राज्यों में भी मिला। पंजाब में पांच साल राज्य करने के बाद भी यह पार्टी व उनके नेता जनता का विश्वास नहीं प्राप्त कर सके। पांच सालों में आपने पंजाब के भले के लिए क्या काम किए यह नही बता पाए या आनेवाले पांच साल में क्या करेंगे यह भी नहीं बता पाए। कारण इनका पूरा जोर भाजपा हो या फिर कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे पुराने सहकारी हो, प्रत्येक विषय पर गलत बात करने पर था, उनकी वह भाषा व बात को जनता ने स्वीकार नहीं किया।
उत्तरप्रदेश में सत्ता स्थापित करने के लिए आतुर अखिलेश यादव ने भी इसी मार्ग का उपयोग किया। अत्यंत ही तुच्छ- हीन भाषा के साथ धमकी का जोड़ उनके प्रचार की विशिष्टता थी। 'सत्ता आने पर अमुक समूह का हिसाब पूरा करेंगे, तुम्हारे समुदाय को देख लेंगे' यहां से लेकर सरकारी अधिकारियों को भी 'सबक' सिखाने की भाषा अखिलेश व उनके सहकारी अनियंत्रित रूप से प्रत्येक सभा में उपयोग कर रहे थे। मोदीजी, योगीजी व भाजपा पर टीका करते समय, सभ्यता की मर्यादा व किसी भी तरह की सीमा उन्होंने नही रखी थी। जिस जनता से मत मांगना था, उसी जनता को यह नेता मूर्ख मान रहे थे। इसलिए योगीजी के कार्यकाल में हुए सभी विकास कार्यों का निर्णय मैंने ही लिया है यहां से लेकर 'राममंदिर तो मैं दो सालों में बनाया रहता ' यहां तक दावा करने वाले बड़बोलेपन के भाषण अखिलेश कर रहे थे। इस तरह से बोलते समय, राममंदिर के लिए लाठी डंडे खानेवाले लाखों लोग, मुलायम सिंह द्वारा की गई गोलीबारी में मृत्यु को प्राप्त लोगों के सैकड़ों परिवार हमारे सामने है, इसका भी भान उन्हें नही था। योगीजी के कार्यकाल में पूरा किए गए गंगा एक्सप्रेस वे, पूर्वांचल एक्सप्रेस वे, कानपुर मेट्रो जैसी मूलभूत सुविधाओं की परियोजना जिससे उत्तरप्रदेश के चेहरे मोहरे को बदलने में सहायता मिली, यह अखिलेश स्वीकार न भी करें तब भी जनता को पता था। आनेवाले पांच सालों में उत्तरप्रदेश के लिए आप क्या करनेवाले हो , इसका जनता को क्या लाभ मिलेगा इस बारे इन सब मे कोई नहीं बोल रहा था। केवल व केवल नफरत इतना ही अखिलेश व उनकी पार्टी के प्रचार का एकमात्र मुद्दा था। इसके विपरीत अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी द्वारा स्वीकार की गई नीति थी। पंजाब व अन्य स्थानों पर प्रचार करते समय उनका पूरा जोर अपने कार्यक्रम बताने पर था। उन्होंने कांग्रेस अथवा भाजपा पर कोई भी टिप्पणी कहीं नही की । नफरत की भाषा का भी उपयोग नही किया। प्रकाशित हुए एक अध्ययन के अनुसार अरविंद केजरीवाल द्वारा पिछले छह महीने में दिए गए 77 भाषणों में केवल 3 बार मोदीजी का उल्लेख था शिवसेना व राष्ट्रवादी कांग्रेस, महाराष्ट्र की इन दो पार्टियों ने उत्तरप्रदेश, गोवा में उम्मीदवार खड़े करके भरपूर दावे किए थे। लेकिन उनके हिस्से में कुछ भी नहीं आया। मतदाताओं ने इन पर ध्यान ही नहीं दिया। इनके सभी उम्मीदवारों को मिले मत 'नोटा' को मिले मतों से भी कम है। लेकिन दोनों पार्टियों के नेता इससे कुछ समझकर लेंगे, इसकी संभावना नहीं है। महाराष्ट्र के प्रसार माध्यमों में एक बड़ा वर्ग इन दोनों पार्टियों के नेताओं के पोवाड़े(गुणगान करनेवाला एक तरह का गीत) गाने में मग्न था। शरद पवार व ठाकरे को 'करिश्माई नेता' कहने की इस मंडली की पद्धति है। लेकिन इन दोनों करिश्माई नेताओं ने स्वयं के बल पर एक भी राज्य नही जीते हैं। कोई भी राजनीतिक पृष्ठभूमि व करिश्मा न रखनेवाली केजरीवाल की पार्टी, दस साल में दो राज्य जीतती है लेकिन महाराष्ट्र के यह करिश्माई नेता स्वयं के आधार रखनेवाले राज्य में भी एक चौथाई स्थान से आगे नही जा सकते हैं। उनका आधारहीन बड़बोलापन और स्वार्थपूर्ण भ्रष्ट राजनीति इन दोनों बातों को जनता ने साफ इंकार कर दिया है।
महाराष्ट्र की ये दोनों पार्टियां व मविआ में उनकी जोड़ीदार कांग्रेस पार्टी महाराष्ट्र में यह नफरत भरी विषैली राजनीति कर रहे हैं। दिनभर भाजपा, मोदीजी नही तो देवेंद्र जी पर अत्यंत हीन स्तर पर गाली की भाषा में व्यक्तिगत टिप्पणी करते रहना इसके अलावा इन पार्टियों के नेता दूसरा कुछ भी नहीं करते हैं। कारण की उनके पास स्वयं के बारे में कहने जैसा कुछ भी नहीं है। पिछले दो साल के कार्यकाल में आघाडी सरकार ने क्या दुर्दशा करके रखी है यह उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए वित्तीय सर्वेक्षण रिपोर्ट में दिखाई दे रहा है। केवल दो सालों में इस सरकार के दो मंत्री जेल में गए, दोनों को इस्तीफा देना पड़ा और अनेक मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप के कारण जेल जाने की कतार में खड़े हैं। लेकिन इन सब के लिए उन्हें कोई दुख नही है। इसके विपरीत उनके भ्रष्टाचार की मनमानी का विरोध करनेवाले भाजपा नेताओं से लेकर स्वतंत्र पत्रकार, नागरिकों तक सभी पर तानाशाही करके षडयंत्र करके फंसाने के प्रयास सत्ता का दुरूपयोग यह नेता कर रहे हैं। लेकिन, ऐसे नेताओं और पार्टियों को स्वीकार करने की मानसिकता अब जनता में नही रही है। नफरत की इस राजनीति का अनुभव पश्चिम बंगाल में भी हो रहा है। वहां चुनाव परिणाम आने पर तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में वापस आने के साथ ही राज्य में उनके कार्यकर्ताओं ने बड़े पैमाने पर हिंसा करते हुए सैकड़ों भाजपा कार्यकर्ताओं की बलि ली थी। उत्तरप्रदेश में सपा का राज्य आया होता तो यही दृश्य देखने को मिलता। लेकिन भाजपा द्वारा सत्ता बनाये रखने के पश्चात वहां विजय जुलूस के दौरान विरोधियों पर और उनके कार्यालय पर कही भी हमला नही हुआ। कारण भाजपा नफरत की राजनीति नही करती है। आज भारत की जनता अपना व अपने क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के मुद्दे को अधिक महत्व देने लगी है। किसी भी प्रकार से किए गए नफरत के जहरीले प्रदर्शन और उपयोग जनता को स्वीकार नहीं है । सर्वांगीण व चहुमुंखी विकास की ओर ध्यान न देते हुए किसी भी एक ही समाज की ओर से निरंतर बोलते रहना और उस समाज के विकास के लिए भी कुछ नहीं करना इस तरीके को भारतीय, विशेषतः मराठी जनता ने भरपूर अनुभव किया है। इस तरह की राजनीति व ऐसा करने वाले भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं इन दोनों को ही अब जनता सबक सिखाने लगी है। भ्रष्टाचार और परिवारवाद इन्हें भी जनता अब स्वीकार नहीं करती है। जनता को नफरत की नही बल्कि विकास के विधायक व भ्रष्टाचार मुक्त, प्रामाणिक राजनीति चाहिए । इसलिए जनता ने नफरत की भाषा व प्रवृत्ति को नकारने वाला जनादेश दिया है। महाराष्ट्र की जनता की मानसिकता भी आज वही है।
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